
नई दिल्ली [अवधेश कुमार]। हमारे सामने पिछले कुछ दिनों में भारत की आर्थिक दशा की जो तस्वीरें आई हैं, उन सबके आधार पर कोई एक निष्कर्ष निकालना कठिन है। किंतु इस भयावह सच पर दो राय कठिन है कि भारत में गरीबों की संख्या बढ़ी है और महंगाई के कारण उनका जीवन दूभर हुआ है।
हमारे सामने योजना आयोग द्वारा सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञों की समिति ने भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की आबादी 37 प्रतिशत बताया है। गावों में इनकी संख्या 42 प्रतिशत से अधिक है। यह योजना आयोग के ही पूर्व आकड़े से ज्यादा है।
आयोग ने देश में गरीबों की कुछ आबादी 27.5 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 28.3 प्रतिशत माना था। सरकार अपने वक्तव्यों और आकलनों में यही आकड़ा पेश करती है। ध्यान रखने की बात है कि यह आकड़ा वर्ष 2004-05 का है और तेंदुलकर समिति ने भी उसी वर्ष की तस्वीर पेश की है।
ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जो अपना अध्ययन कराया है, उसके अनुसार तो गावों की 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को गरीबी रेखा के नीचे माना जाना चाहिए। साफ है कि उदारीकरण से देश के आम आदमी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होने का दावा सही साबित नहीं हुआ है।
कहा जा रहा है कि चूंकि तेंदुलकर समिति ने गरीबी रेखा के पैमानों में बदलाव किया है, इसीलिए गरीब आबादी की संख्या में इतनी बड़ी वृद्धि नजर आई है। निस्संदेह, समिति ने पैमाने बदले हैं, लेकिन ये कहीं शून्य से नहीं आए हैं।
आखिर केवल निश्चित कैलोरी ऊर्जा भोजन को ही गरीबी का मापदंड स्वीकार करना किसी दृष्टि से उचित नहीं है। सरकारी मापदंड में ग्रामीण क्षेत्र में किसी व्यक्ति की मासिक आय 276 रुपये तथा शहरी क्षेत्रों में 296 रुपये गरीबी रेखा की सीमा है।
सामान्य कल्पना यह है कि इतने धन से कोई व्यक्ति 220 कैलोरी ऊर्जा का भोजन पा सकता है। अगर आय इस सीमा से नीचे है तो गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगा। जरा सोचिए, यह आय प्रतिदिन 10 रुपये से भी कम है। इतने पर कोई कैसे एक मनुष्य का जीवन जी सकता है?
मनुष्य की आवश्यकता केवल भोजन तक ही तो सीमित नहीं है। सिर छिपाने के लिए घर, तन ढंकने के लिए वस्त्र, बीमार पड़ने पर चिकित्सा, शिक्षा आदि न्यूनतम आवश्यकताओं के बारे में विचार न करने का अर्थ क्या है?
तेंदुलकर समिति ने शिक्षा और स्वास्थ्य को अपने आकलन में शामिल किया है। देश की इतनी बड़ी आबादी का अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रहने से बड़ा कलंक हमारे नीति-निर्माताओं के लिए और क्या हो सकता है?
जरा महंगाई के आईने में गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने वालों की स्थिति का आकलन करिए। नवंबर में महंगाई दर 4.78 प्रतिशत रही। वैसे तो महंगाई का सरकारी आकड़ा स्वयं में उपहास का विषय है, किंतु यदि इसी आकड़े की अक्टूबर से तुलना करें तो यह तिगुनी बढ़ोतरी है।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि खाने संबंधी सामानों के दामों में बढ़ोतरी के कारण ही महंगाई दर में इतनी तेज उछाल दर्ज हुई है।
यह बात आसानी में समझ में आने वाली है कि अगर खाने के सामानों के ही दाम ज्यादा बढ़ रहे हैं तो फिर जिस आय को गरीबी रेखा का पैमाना बनाया गया है, उसके अंदर 2,200 कैलोरी का भोजन मिलना नामुमकिन है। अगर उनकी आय में भी महंगाई के अनुपात में बढ़ोतरी होती तो यह संभव हो सकता था।
गरीबी के इन आकड़ों को आधार बना लें तो साफ है कि स्तरीय शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि सुविधाओं की बात तो दूर हमारे देश में कम से कम 40-45 करोड़ ऐसे नागरिक होंगे, जिन्हें पेट भर उचित भोजन तक नसीब नहीं हो रहा है। सब्जियों और दालों के दाम इतने बढ़ गए हैं कि ये लोग इनका केवल सपना देख सकते हैं।
वित्तमंत्री उम्मीद कर रहे हैं कि सस्ती दरों पर चावल और गेहूं उपलब्ध कराने की योजना से गरीबों पर महंगाई की मार कम पड़ेगी। वैसे, सस्ते अनाज योजना की जमीनी स्थिति का मूल्याकन होने के बाद ही वास्तविकता का अहसास हो सकता है, लेकिन खुद प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करने तथा जमाखोरों एवं मुनाफाखोरों के खिलाफ कार्रवाई की बात कर रहे हैं तो इसका अर्थ भी स्पष्ट है।
सरकार वर्तमान वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 प्रतिशत की विकास दर से उत्साहित हो सकती है। पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी के दौर में भारत की विकास दर को महिमामंडित किया जा रहा है। विश्व मंचों पर मिल रही प्रशंसा से सरकार आत्ममुग्ध हो सकती है।
अक्टूबर में उद्योगों की 10.3 फीसदी व इस वर्ष के सात महीनो में 7.1 फीसदी विकास दर का दर्ज आकड़ा भी सरकार को उत्साहित कर रहा है। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों इन आकड़ों को आर्थिक ठहराव से देश के बाहर निकलने का प्रमाण बता रहे हैं।
विश्व का जो वर्तमान आर्थिक ढाचा है, उसमें यह सही लगता भी है, लेकिन अगर यह बाहर निकलना है भी तो उसका लाभ कुछ सीमित तबके को ही मिल सकता है। अर्थशास्त्र की वर्तमान शब्दावली में जिसे संगठित क्षेत्र कहतें हैं, उनमें हमारे यहा आज भी एक करोड़ से कम लोग काम करते हैं। आज भी ज्यादातर रोजगार असंगठित क्षेत्र में ही हैं। इनमें कृषि का योगदान 60 फीसदी से अधिक है।
कृषि की स्थिति पर विश्वसनीय अनुमान देने की हालत में सरकारी एजेंसिया नहीं हैं। भारत में गरीबों के जीवन यापन में कृषि और उससे जुड़ी गतिविधिया ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
सच कहा जाए तो गरीबी के आकड़े हमारे नीति-निर्माताओ के लिए आख खोलने वाले होने चाहिए। हमारी जीवन शैली से जुड़ी और परंपरागत अनुभवों एवं तकनीकों के कारण स्वावलंबी और स्वायत्त कृषि के महत्व को नजरअंदाज कर उद्योगों के आरोपित विकास को अपनाने के दुष्परिणामो ने ही भारत की ऐसी दुर्दशापूर्ण स्थिति बना दिया है।
नवंबर में विश्व आर्थिक मंच ने भारत के साथ अपने संबंधों का 25वा वर्ष पूरा होने के अवसर पर राजधानी में जो कार्यक्रम आयोजित किया, उसमें 40 देशों के करीब 800 प्रतिनिधियो ने हिस्सा लिया। इसमें सभी प्रतिनिधियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की छलाग को चमत्कारिक बताते हुए कहा कि इसके पास अकल्पनीय विकास का भविष्य है।
यह विश्व में भारतीय अर्थव्यवस्था की बढ़ती धाक और विश्वसनीयता का सबूत था, लेकिन आर्थिक विकास और समृद्धि का उनका अपना नजरिया है और भारत के संदर्भ में शत-प्रतिशत प्रासंगिक नहीं है। वैसे भी भारत में गरीबी की हकीकत सामने रख दी जाए तो निश्चय ही ये शब्दावलिया उलट जाएंगी।
कहने का तात्पर्य यह कि हमें ऐसी प्रशंसा की आत्ममुग्धता से बचकर नंगी हकीकत को स्वीकार करना चाहिए। पिछले कुछ वर्षो में दुनिया में कृषि का महत्व जिस प्रकार बढ़ा है, उसमें अपनी गलती तो समझ में आ रही है, लेकिन उसके ईमानदार परिमार्जन के लिए साहसपूर्ण पहल से बचने की कोशिश अब भी हो रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
यदि अगले कई सालों तक कृषि पर अर्थव्यवस्था को फोकस नहीं किया गया तो फिर भारत में वास्तविक अर्थो में गरीबों यानी कंगालों की संख्या में इजाफा होगा। वैसे भी अगर एक डालर प्रतिदिन आमदनी का वैश्विक मापदंड को आधार बना दें तो यह प्रतिमाह करीब 1500 रुपये हो जाता है। इसके आधार पर तो भारत की 75 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे आ जाएगी।
हम यह तो मानते हैं कि भारत जैसी अलग सामाजिक स्थिति वाले देश में केवल नकदी आय को किसी के जीवन स्तर का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए। परिवार परंपरा पर टिके भारत के समाज में जीवन स्तर का निर्धारण कई पहलुओं से होता है, लेकिन इसके साथ सच यह भी है कि औद्योगिकरण और बाजार पूंजीवाद अपनाने के बाद भारत का समाज भी पश्चिम की अनुकृति बन रहा है। इससे बचने की आवश्यकता है।
जाहिर है, नए आकड़ों पर प्रश्न उठाने की बजाय केंद्र और राज्य सरकारों को अपनी समग्र आर्थिक-सामाजिक विकास की नीति की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए।
source :http://in.jagran.yahoo.com/news/business/general/1_12_6031901/